अवैध हिरासत और पुलिसिया हिंसा के खिलाफ मिली आंशिक जीत: आदिवासी अनिल सिंह को मुआवज़ा, न्याय की लड़ाई जारी

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अवैध हिरासत और पुलिसिया हिंसा के खिलाफ मिली आंशिक जीत: आदिवासी अनिल सिंह को मुआवज़ा, न्याय की लड़ाई जारी

लातेहार, झारखंड झारखंड के लातेहार ज़िले के बरवाडीह प्रखंड के कुकू ग्राम निवासी आदिवासी अनिल सिंह को पुलिसिया उत्पीड़न के खिलाफ लड़ी गई लंबी कानूनी और जनसंघर्ष की लड़ाई में एक आंशिक सफलता मिली है। 15 अप्रैल 2025 को अनिल सिंह को राज्य सरकार की ओर से पाँच लाख रुपये का मुआवज़ा दिया गया। यह मुआवज़ा गारू थाना में हुई अवैध हिरासत और हिंसा के एवज़ में दिया गया है, जिसे उच्च न्यायालय ने पुलिस की गंभीर ज़िम्मेदारी मानते हुए निर्धारित किया था। न्यायालय ने यह राशि दोषी थाना प्रभारी से वसूलने का आदेश दिया है।

हालांकि यह मुआवज़ा, अनिल सिंह के साथ हुए अमानवीय बर्ताव और शारीरिक व मानसिक यातना की तुलना में बहुत कम है, फिर भी मौजूदा न्यायिक और प्रशासनिक ढांचे में इसे एक महत्वपूर्ण जीत माना जा रहा है।

क्या हुआ था अनिल सिंह के साथ?

23 फरवरी 2022 को अनिल सिंह को कथित माओवादी सहयोग के झूठे आरोप में गारू थाना की पुलिस ने दो दिनों तक अवैध रूप से हिरासत में रखा। इस दौरान थाना प्रभारी रंजीत यादव, उप प्रभारी शहीद अंसारी और अन्य पुलिसकर्मियों द्वारा उनके साथ अमानवीय हिंसा की गई। अनिल सिंह को पूरे शरीर पर बुरी तरह पीटा गया, जातिसूचक गालियाँ दी गईं, और पेट्रोल तक पैखाने के रास्ते डालने जैसे बर्बर कृत्य किए गए। इस अत्याचार से वह गंभीर रूप से घायल हुए।

न्याय के लिए संघर्ष

इस घटना के बाद अनिल सिंह ने चुप बैठने के बजाय न्याय की राह चुनी। प्राथमिकी दर्ज करवाने के लिए उन्हें सात महीने तक लगातार संघर्ष करना पड़ा। आखिरकार व्यापक दबाव और आंदोलन के चलते मामला दर्ज हुआ। इसके बाद अनिल सिंह ने न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया और लगातार कानूनी लड़ाई लड़ी।

24 जून 2024 को झारखंड उच्च न्यायालय ने गारू थाना पुलिस को दोषी करार देते हुए दो सप्ताह के अंदर मुआवज़ा भुगतान का आदेश दिया। लेकिन प्रशासन की ओर से टालमटोल जारी रही और अनिल सिंह को यह मुआवज़ा मिलने में पूरे 10 महीने का समय लग गया।

संघर्ष में साथ खड़े लोग

इस पूरे संघर्ष में ‘महासभा’ ने अनिल सिंह के साथ लगातार कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया। स्थानीय स्तर पर साथी लाल मोहन सिंह खरवार की भूमिका विशेष रूप से उल्लेखनीय रही, जिन्होंने न केवल कानूनी बल्कि सामाजिक रूप से भी अनिल को समर्थन दिया।

उच्च न्यायालय में अनिल सिंह की ओर से कानूनी लड़ाई लड़ने वाले अधिवक्ता शैलेश पोद्दार को भी विशेष धन्यवाद दिया गया है। साथ ही, भाकपा (माले) लिबरेशन के पूर्व विधायक कामरेड विनोद सिंह ने कई बार इस मसले को विधानसभा में उठाया और सरकार को जवाबदेह बनाने का प्रयास किया।

क्या केवल मुआवज़ा पर्याप्त है?

अनिल सिंह को मिला मुआवज़ा इस बात का प्रतीक भर है कि राज्य को अपने अधिकारियों की जवाबदेही तय करनी होगी। लेकिन यह भी साफ है कि यह न्याय का अंत नहीं है। दोषी पुलिसकर्मियों पर अब भी आपराधिक मुकदमा चलना बाकी है, और अनिल सिंह के साथियों ने स्पष्ट किया है कि वे सज़ा की मांग को लेकर संघर्ष जारी रखेंगे।

एक और मिसाल: ब्रम्हदेव सिंह का मामला

यह कोई पहला मामला नहीं है जब लातेहार के आदिवासियों को पुलिस और सुरक्षा बलों के हाथों अन्याय का सामना करना पड़ा हो। 2021 में इसी क्षेत्र के आदिवासी ब्रम्हदेव सिंह को फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया था। उनकी पत्नी जीरामनी देवी ने भी लंबे समय तक संघर्ष किया, और अंततः सुरक्षा बलों की ज़िम्मेदारी तय हुई तथा उन्हें भी मुआवज़ा मिला।

आगे की राह

अनिल सिंह और जीरामनी देवी जैसे संघर्षशील लोगों के अनुभव हमें यह सिखाते हैं कि पुलिसिया दमन और राज्य प्रायोजित हिंसा के खिलाफ संगठित और दीर्घकालिक संघर्ष जरूरी है। यह भी ज़रूरी है कि ऐसे मामलों को सिर्फ व्यक्तिगत न समझा जाए, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक न्याय के व्यापक सवालों से जोड़ा जाए।

अनिल सिंह को मिला मुआवज़ा एक प्रतीकात्मक जीत है, लेकिन इससे स्पष्ट होता है कि जब समाज के हाशिये पर खड़े लोग भी न्याय की मांग करते हैं, तो सत्ता को झुकना पड़ता है। यह संघर्ष उन सभी के लिए प्रेरणा है जो अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाना चाहते हैं। अब समय है कि दोषी अधिकारियों को कानूनी सज़ा मिले और इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।

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