(रिपोर्ट — विशेष संवाददाता)
स्थान: गोमिया, झारखंड
झारखंड के गोमिया थाना क्षेत्र का नाम अक्सर नक्सल घटनाओं के कारण सुर्खियों में रहता है। घने जंगलों और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों से घिरा यह इलाका वर्षों से उग्रवाद की जकड़ में फंसा रहा है। इसी क्षेत्र से जुड़ी है एक ऐसी कहानी, जो केवल अपराध और सजा की नहीं, बल्कि गरीबी, शोषण, छल और विवशता की गहरी तस्वीर पेश करती है। यह कहानी है फूलचंद किस्कू उर्फ राजू की — एक ऐसा व्यक्ति जिसे खेती करने के लिए एक जोड़ा बैल देने का झूठा सपना दिखाकर नक्सली संगठन में शामिल कर लिया गया था। दस वर्ष गुजर गए, लेकिन न तो उसे बैल मिला और न ही उस वादे को निभाने वाला कोई व्यक्ति अब इस दुनिया में जिंदा है।
🌾 एक जोड़ा बैल का लालच और उग्रवाद में प्रवेश
करीब दस साल पहले, गोमिया थाना क्षेत्र के घने जंगलों के बीच बसे धमधरवा गांव के एक गरीब आदिवासी युवक फूलचंद किस्कू को नक्सलियों ने अपने संगठन में शामिल किया। लालच था — खेती के लिए एक जोड़ा बैल देने का। फूलचंद की स्थिति बेहद दयनीय थी, परिवार निर्धन, घर मिट्टी और टिन के टुकड़ों से बना हुआ, और जीविका का कोई ठोस साधन नहीं। खेती ही उसके जीवन का एकमात्र सहारा था।
नक्सली नेताओं ने उसकी गरीबी और अनपढ़ता का फायदा उठाया। उन्होंने उसे समझाया कि अगर वह संगठन में शामिल हो जाए, तो उसे न केवल खेती के लिए बैल मिलेगा, बल्कि इलाके में सम्मान भी बढ़ेगा। समाज में हाशिए पर खड़े एक गरीब आदिवासी के लिए यह प्रस्ताव किसी आशा की किरण जैसा था। परंतु यह आशा धीरे-धीरे उसके जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप बन गई।
🔫 अपराध की राह पर मजबूर फूलचंद
संगठन में शामिल होने के बाद फूलचंद किस्कू को धीरे-धीरे हिंसक गतिविधियों में धकेल दिया गया। पहले उसने केवल सूचना देने और संगठन के संदेश पहुंचाने का काम किया, लेकिन जल्द ही उसे हथियार पकड़ने को कहा गया।
धीरे-धीरे उसका नाम कई घटनाओं में जुड़ता गया। पुलिस के अभिलेखों में उसके ऊपर हत्या, लूट, डकैती, रंगदारी, और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने जैसे 15 से अधिक गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हुए।
जिस व्यक्ति ने खेती के लिए बैल मांगा था, वह अब जंगलों में हथियार लेकर घूमने वाला उग्रवादी बन चुका था। नक्सल संगठन ने न तो उसे वादा किया गया बैल दिया, न ही कोई बेहतर जीवन। बदले में मिला तो केवल भय, भगदड़ और मौत से मुकाबला करने वाला जीवन।
🏚️ अंधेरे में डूबा परिवार
धमधरवा गांव के सुदूर इलाके में बसे फूलचंद किस्कू के घर की हालत आज भी बेहद दयनीय है। उसका घर गांव से लगभग एक किलोमीटर दूर सुनसान जंगल के बीच है। मिट्टी की दीवारें, बांस और पुराने टिन की छत, दरवाजे की जगह फटा कपड़ा — यह सब देखकर किसी को भी यकीन करना मुश्किल होगा कि यह घर कभी “उग्रवादी” कहे जाने वाले व्यक्ति का है।
जब पुलिस टीम ने दो महीने पहले एक विशेष अभियान के दौरान उसके घर पहुंची, तो वहां फूलचंद नहीं, बल्कि उसकी बहू मिली। अत्यंत फटेहाली में जी रही वह महिला इस बात की मिसाल थी कि अपराध का असर केवल अपराधी तक सीमित नहीं रहता, बल्कि उसका परिवार भी सामाजिक बहिष्कार और तिरस्कार का शिकार बनता है।
फूलचंद के अपराधी घोषित होने के कारण उसके परिवार का किसी भी सरकारी योजना में नाम नहीं है। न आधार कार्ड, न राशन कार्ड, न सरकारी मदद। गांव के लोग उनसे बातचीत तक नहीं करते। यह सामाजिक अलगाव किसी सजा से कम नहीं।
🕊️ आत्मसमर्पण की कोशिश और गिरफ्तारी
जब पुलिस टीम ने फूलचंद की बहू को राज्य सरकार की आत्मसमर्पण नीति की जानकारी दी, तो टीम को उम्मीद थी कि फूलचंद शायद सुधरने का मौका लेगा। लेकिन बहू के हावभाव और बातों से साफ था कि फूलचंद अब आत्मसमर्पण करने की मानसिकता में नहीं है।
कुछ दिनों तक इंतजार के बाद पुलिस ने एक नई टीम गठित की और सघन छापेमारी अभियान चलाया। फूलचंद किस्कू को अंततः उसके घर के पास जंगल से गिरफ्तार कर न्यायिक अभिरक्षा में भेज दिया गया। इस गिरफ्तारी के साथ गोमिया थाना क्षेत्र का एक अंतिम कुख्यात उग्रवादी पुलिस की पकड़ में आया।
नक्सलवाद की सच्चाई: सुधार के नाम पर शोषण
फूलचंद किस्कू की कहानी सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उन हजारों गरीब, अशिक्षित और उपेक्षित ग्रामीणों की कहानी है, जिन्हें नक्सली संगठन वर्षों से बहलाकर अपने जाल में फंसा रहे हैं।
ये संगठन खुद को “गरीबों का मसीहा” बताते हैं, पर असल में वही इन गरीबों की सबसे बड़ी बदकिस्मती का कारण बनते हैं।
सरकार के खिलाफ भड़काकर, रोजगार और पैसे का वादा कर ये लोग भोले-भाले ग्रामीणों को हिंसा के रास्ते पर धकेल देते हैं। ऊपर के नेता करोड़ों की संपत्ति इकट्ठी करते हैं, जबकि नीचे के कार्यकर्ता गोलियों और बमों की आग में झुलस जाते हैं।
फूलचंद किस्कू जैसे सैकड़ों लोग हैं जिन्होंने झूठे वादों के चलते न केवल अपनी जिंदगी बर्बाद की, बल्कि अपने परिवार को भी समाज के तिरस्कार की आग में झोंक दिया।
(रिपोर्ट — विशेष संवाददाता)
स्थान: गोमिया, झारखंड