प्रभाकर कुमार श्रीवास्तव
क्षेत्रीय संपादक1
बात अगर ओल्ड पेंशन योजना की की जाए तो, इसमें कर्मचारियों के सेवाकाल के आखिर के वेतन का 50 फीसदी पेंशन के रूप में सरकार द्वारा कर्मचारी को आजीवन भुगतान किया जाता है। परंतु भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई सरकार ने, इस पुरानी पेंशन योजना को समाप्त कर दिया था। अब प्रश्न यह उठटा है कि, यह पुरानी पेंशन योजना इतनी जरूरी क्यों है एवं इसे समाप्त करने के प्रति जिम्मेदार कौन है। वैसे देखा जाए तो कुछ लोगों का मानना है की पेंशन अच्छी योजना नहीं है, क्योंकि इस कारण सरकार पर वित्तीय भार पड़ता है। परंतु वास्तव में आप पाएंगे कि इस तरह की बातें अधिकांशत वही लोग कहते हैं,जो या तो व्यापारी वर्ग के हैं या फिर बेरोजगार हैं। और उनमें अब सरकारी नौकरी पाने की योग्यता खत्म हो चुकी है। जिनकी संख्या भारत में सबसे ज्यादा है।परंतु एक कर्मचारी के रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति ओल्ड पेंशन योजना की चाहत रखता है,और इसे अपनी जरूरत के साथ-साथ अधिकार भी समझता है।अब प्रश्न यह उठना है कि आखिर किसके विचार एवं सोच को सही समझा जाए।
अगर सही मायने में देखा जाए तो पुरानी पेंशन योजना किसी भी कर्मचारी का अधिकार होना ही चाहिए एवं सरकार को सर्वप्रथम इस अधिकार की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाना चाहिए। क्योंकि पेंशन कर्मचारियों के बुढ़ापे का सहारा होने के साथ-साथ उनके जीवन का आधार भी होता है। हालांकि 2004 में सरकार ने नई पेंशन योजना की शुरुआत की थी,परंतु मेरी नजर में पुरानी पेंशन योजना एक सुरक्षित पेंशन योजना है। जिसका भुगतान सरकार की ट्रेजरी के जरिए किया जाता है। वहीं दूसरी तरफ नई पेंशन योजना शेयर बाजार पर आधारित है।एवं बाजार की चाल के आधार पर ही भुगतान होता है। जो की पूर्ण रूपेण एक असुरक्षित योजना है। परंतु अफसोस की बात है कि पुरानी पेंशन योजना को राजनीति का शिकार होना पड़ा। और इसके लिए सिर्फ अटल सरकार ही नहीं बल्कि लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां भी जिम्मेदार हैं।
पुरानी पेंशन योजना पुनः लागू करने के लिए अभी देश में राष्ट्रीय आंदोलन चलाया जा रहा है। कर्मचारियों द्वारा पुरानी पेंशन योजना पुनः बहाल करने की मांग की जा रही है। शायद कर्मचारियों को उम्मीद है कि 2024 के चुनाव के कारण केंद्र सरकार पुरानी पेंशन योजना को फिर से लागू कर दें। वैसे देखा जाए तो राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ के चुनावी वादों में पुरानी पेंशन योजना को लागू करने का वादा किया गया था, और सरकार ने इसे लागू भी किया।दूसरे कई राज्यों में भी इस योजना पर राजनीति का रंग चढ़ चुका है। एवं कई राजनीतिक पार्टियों द्वारा पुरानी पेंशन योजना पुनः लागू करने का वादा किया जा रहा है। जब अटल सरकार ने पुरानी पेंशन योजना को बंद किया था, तब पश्चिम बंगाल सरकार ने इस योजना को लागू रखा और आज भी पश्चिम बंगाल में कर्मचारी पुरानी पेंशन योजना का लाभ उठा रहे हैं। जब हम बात करते हैं भारतीय सेना की, जो देश की रक्षा के लिए अपना सर्वत्र निछावर कर देते हैं। जब 2004 में सरकारी कर्मचारियों की पेंशन बंद हुई, परंतु सेना को इससे दूर रखा गया। कम से कम सरकार के इस कदम को सराहा जा सकता है।परंतु नरेंद्र मोदी सरकार ने तो अग्निपथ योजना के माध्यम से भारतीय अग्निवीरों से पेंशन का हक छीन लिया। सरकार का मानना है कि ये चार साल बाद ही सेवा मुक्त हो जाएंगे, इसलिए ये पेंशन के हकदार नहीं होंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अगर जनता या कर्मचारी यह सवाल पूछेंगे कि विधायकों और सांसदों को भी पेंशन की क्या जरूरत है। क्यों ना उनकी भी पेंशन को बंद कर दी जाए।यकीन मानिए तब सारे विधायक और सांसद एक हो जाएंगे। परंतु विधायकों एवं सांसदों का पेंशन बंद नहीं होने देंगे। भाजपा सांसद वरुण गांधी ने अग्निवीरों के समर्थन में पेंशन छोड़ने की बात जरूर कही थी। परंतु कथनी और करनी में बहुत अंतर होता है। भारत के कई राज्य तो ऐसे हैं जहां के पूर्व विधायकों की पेंशन सांसदों से ज्यादा है। कई राज्यों में विधायक जितनी बार विधायक बनते हैं, उतनी बार की पेंशन ले रहे हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने ऐलान किया है कि अब एक विधायक को एक ही पेंशन मिलेगी। अर्थात अब से विधायकों को सिर्फ एक ही कार्यकाल की पेंशन दी जाएगी। भगवंत मन की यह पहल प्रशंसनीय है । परंतु अगर वे विधायकों की पेंशन बंद कर सिर्फ यह ऐलान कर देते कि जब हमारी जनता के पास कमी है, ऐसे में जनता के प्रतिनिधियों को राजा बनकर रहने का कोई हक नहीं है। तब भगवंत मान का कद और भी ऊंचा हो जाता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद को गरीबों का हितैसी बताते हैं। एवं गरीबों की बात करते हैं। परंतु सेवानिवृत होने वाले कर्मचारियों के परिवार की गरीबी शायद उन्हें नजर नहीं आती। अगर प्रधानमंत्री सच में गरीबों के हितकारी होते तो इस बात पर जरूर मंथन करते की साठ साल की उम्र तक अपना जीवन खपाने वाले सरकारी कर्मचारियों को अगर पेंशन नहीं, तो सिर्फ एक दिन के लिए भी सांसद बन जाएं तो उन्हें पेंशन क्यों।क्या परिवार सिर्फ विधायकों और सांसदों के ही हैं। क्या बुढ़ापे में समान पूर्वक जीवन जीने का हक सिर्फ विधायकों और सांसदों को ही है। नरेंद्र मोदी सरकार अगर यह कहती है की पेंशन से सरकार पर आर्थिक भार पड़ता है तब विधायकों एवं सांसदों के पेंशन को भी तत्काल बंद कर देना चाहिए और अगर सरकार ऐसा नहीं करती है, तब सरकार को खुलकर बोलना चाहिए कि हम विधायक और सांसद भले ही राजनीतिक विचारधाराओं से अलग हैं, परंतु जब पेंशन की बात आएगी तब हम सब भाई-भाई हैं, हम सब एक हैं। आज विपक्षी पार्टियां पुरानी पेंशन योजना लागू करने का वादा कर रही है। जिसमें कांग्रेस पार्टी प्रमुखता से आगे है। परंतु कांग्रेस पार्टी को यह भी जवाब देना चाहिए कि 2004 से 2014 तक की सरकार में पुनः पेंशन को शुरू क्यों नहीं किया गया। और आज सत्ता पाने की लालसा में पेंशन की याद आ गई। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस मामले में कुछ हद तक ठीक बोला जा सकता है, क्योंकि भारत में गुजरात एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां पूर्व विधायकों को पेंशन नहीं दी जाती है।पूर्व विधायकों ने सरकार से पेंशन की मांग की, परंतु नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री रहते हुए पेंशन लागू नहीं किया। परंतु प्रधानमंत्री पद संभालते ही नरेंद्र मोदी अगर पुरानी पेंशन योजना लागू कर देते तो आज कर्मचारियों को आंदोलन का रुख नहीं लेना पड़ता। और निसंदेश नरेंद्र मोदी की छवि कुछ अलग होती। परंतु अगर अब नरेंद्र मोदी पेंशन लागू करते हैं, तब यह कहना बेमानी नहीं होगा कि सत्ता की चाहत सबको है। चाहे वह किसी भी पार्टी का नेता हो। अधिकांश जन प्रतिनिधियों का मुख्य लक्ष्य सरकारी कर्मचारियों के जीवन के आधार की बजाय खुद के आधार को मजबूत करना ही रहा है।
खैर अगर इन सभी बातों को अनसुना किया जाए एवं आगे की सोच कर चला जाए तो अब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पुरानी पेंशन योजना पुनः लागू कर कर्मचारियों को उनका अधिकार वापस करने का समय है।।